बात बात का फर्क


किसी बात को कहने के अंदाज से ही बात की प्रांसगिकता निर्धारित होती है। और बात की प्रासंगिकता से बात कहने वाले और कही गयी बात का आशय निर्धारित किया जाता है। मसलन पूर्व में समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता और अपने जमाने के लोकप्रिय अभिनेता रह चुके श्री. राज बब्बर जी ने गरीबी को लेकर एक विचित्र बयान दे डाला। उनका कहना था कि आज गरीब एक दिन का भोजन 32 रुपये में कर सकता है। ये बात विपक्षी नेताओं को बुरी लगी और वे न सिर्फ इसका मजाक उड़ाने लगे बल्कि गरीबी निर्धारित करने के इस मापदंड पर ही सवाल उठाने लगे। गौरतलब है कि गरीबी निर्धारित करने को गठित की गई कई समितियों में बड़े ही विचित्र तरीके अपनाए थे, जिनमे से एक था कैलोरी आधार- जिसमे शहरों और गांवों में कार्यरत लोगो की कार्य क्षमता के आधार पर कैलोरी का निर्धारण किया जाता और अमीर व गरीब में विभेद किया जाता था। मसलन ग्रामीण क्षेत्र के लिए 2435 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों के लिए 2025 कैलोरी से कम उपभोग करने वाले को गरीब माना गया। परंतु जयपुर और ऐसे ही अन्य क्षेत्रों जहां बाजरे की पैदावार और खपत दोनो ज्यादा है वहाँ ये कैलोरी लक्ष्य महज 2 या 4 रोटी खाने से पूरा हो जाता और वह व्यक्ति गरीब नही माना जाता। यह मानक गरीबी निर्धारित करने में विफल रहा।
बात की प्रासंगिकता की तरफ वापस लौटते है, जब राजबब्बर जी की आलोचना होनी शुरू हुई तो उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस मे अपनी सफाई देते हुए कहा,"लिखा -पढ़ा हूँ, पढ़ा-लिखा नही।"
अब भले ही लोगो ने इस बात का कोई आशय निकाला हो अथवा नही मगर गौर से देखे तो दोनो बातो में अंतर साफ स्पस्ट है।
वर्तमान समय में ऐसे लोगों की बाढ़ सी आ गयी है जो लिखे-पढ़े है, पढ़े-लिखे नही। अर्थात जिसे वह पढ़ते है उसी को सम्पूर्ण और अकाट्य सत्य मानने लगते है, बुद्धि और विवेक का दायरा चंद बुद्धिजीवियों के पास ही सिमट कर रह गया है। और यही कुछ गिने-चुने बुद्धिजीवी ही बाकी सम्पूर्ण जनता के बुद्धि और विवेक का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करते है। पढ़े-लिखे होने का अर्थ पहले ज्ञान अर्जित करने और फिर उसके उपयोग करने से है। पहले विद्यालयों के मुख्य दरवाजे पर "शिक्षार्थ आइये, सेवार्थ जाइये।" जैसी उक्तियाँ लिखी होती थी परंतु अब यह निर्धारित करना अत्यंत कठिन हो गया है कि कौन सेवार्थ कर रहा है और कौन शिक्षार्थ। लोगो की शिक्षा का स्तर मूर्खता के स्तर तक आ गया है। जाति-धर्म के नाम पर वैमनस्य फैलाने वाले राजनीतिक एजेंडे और अंध भक्ति के नाम पर ऐसा करने वाले लोग और उनके विचार जब तब आपको सोशल नेटवर्क पर आसानी से दिख जाएंगे। संभवत: मैकाले ने ठीक ही सोचा था, की भारतीयों की शिक्षा व्यवस्था पर चोट करो उनकी मानसिकता स्वयं ही कुंद हो जाएगी।

अब ये विचार लोगों को स्वयं करना चाहिए कि वे पढ़े-लिखे है या लिखे पढ़े।


सुलेख-देवशील गौरव

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