प्रेमशास्त्र से अर्थशास्त्र तक
लैला-मजनूं,शिरही-फरहाद, रोमियो-जूलियट इन सभी में सिर्फ एक समानता है कि इन सब ने शिद्दत से प्यार किया, टूट कर प्यार किया और सिर्फ प्यार किया। और शायद यही वो वजह है जिससे इनका प्यार कभी पूरा न हो सका। अपने अंजाम तक न पहुंच सका। और वे असफल रहे क्योंकि प्रेमशास्त्र में अर्थशास्त्र का कोई स्थान नही है परंतु अर्थशास्त्र के बिना प्रेमशास्त्र हो ही नही सकता। बहुत से लोग जो शायद पहली बार प्रेम में पड़े हो या सम्भवतः वे ऐसे किसी दौर से न गुजरे हो शायद ही मेरी बात से सहमत हो। बात उनकी भी सही है, सावन के अंधे को हर जगह हरा ही हरा दिखता है। धोखा खाया हुआ प्रेमी प्रेम न करने की सलाह देता है और प्रेम के प्रतिफल का स्वाद चख चुका व्यक्ति उसे गलत ठहराता है। ये विषय और भी गंभीर तब हो जाता है जब प्रश्न सीधा-सीधा व्यक्ति की सोच से जुड़ जाता है। और बात अगर प्रेमशास्त्र की असफलता की करे तो प्रेमी-प्रेमिका दोनो ही दोषी हुए। बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहूँ तो मेरे जेहन में प्रसिद्ध अमेरिकन काउंसलर और लेखक जॉन ग्रे का नाम अनायास ही आ जाता है। बेचारे ने अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण कई साल तो इसी बात को समझने में लगा दिए कि आखिर स्त्री और पुरुष के बीच में उपजी इस दरार की वजह क्या है, और जब उन्हें इस बात की गंभीरता का अंदाजा हुआ तो उन्होंने अपने ज्ञान को दुनिया को बांटने के लिए पूरी एक किताब ही लिख डाली,'मेन फ्रॉम मार्स, वीमेन फ्रॉम वीनस'। प्रेम में पड़े लोगों ने प्रेम को समझने और प्रेम को तलाश कर रहे लोगों को लगा कि उनके जीवन में एक नया सवेरा आया है। मगर उन्हें बाद में पता चला कि ग्रे साहब की अपनी घरवाली के साथ नहीं बन रही थी और प्यार की तलाश करते-करते उन्होंने आदमी और और के सोचने के ढंग पर खोज कर डाला। हालांकि ये बात और है कि पूरी किताब में उन्होंने सिर्फ लच्छेदार बातें भर की है और पूरी किताब में वे कहीं भी अपनी पत्नी को ये नहीं बोल पाए कि गलती उसकी है। ख़ैर, मेरे मित्र ने एक बार जबरदस्त बात कही थी की प्रेम में सफलता या असफलता से फर्क नही पड़ता। फर्क पड़ता है तो इससे कि आप उसे भुनाते कैसे है। मसलन अगर आप एक लेख है और आपका प्यार आपको मिल गया तो आप प्यार भरी रुबाइयाँ लिखेंगे, प्रेम गीत लिखेंगे और यदि आप असफल होते है तो दर्द भरे नग़मे लिखेंगे या फिर
अपनी असफल प्रेम की कहानी। बहरहाल दोनो ही
सूरतों में प्रेम से आदमी न केवल बहुत कुछ सीख सकता है बल्कि कमा भी सकता है। बात अगर
स्त्री-पुरुष के सोचने की करे तो निसंदेह इसमें ज़मीन-आसमान का अंतर होता है। संभवतः
यही अंतर प्रेमशास्त्र और अर्थशास्त्र के बीच की कड़ी है। गरीब और अमीर के बीच सदियों
से खिंची इस रेखा ने ही प्रेम की परिभाषा बदल कर रख दी है। गरीब आदमी सोचता है कि पैसा
होता तो कामयाबी के साथ-साथ मनचाहा प्रेम भी मिलता, वहीं दूसरी तरफ अमीर आदमी सोचता
है कि गरीब को प्यार आसानी से मिल जाता है। क्योंकि गरीब आदमी प्यार को भी काम की तरह
करता है, नौकरी की तरह सामजस्य बैठाने की कोशिश करता है। उसे अपने प्यार के खोने का
डर लगा रहता है, मगर अमीर एक जाएगी तो दूसरी आएगी वाली विचारधारा पर यकीन रखते है।
इस बात की प्रासंगिकता सिद्ध करता हुआ एक पुराना व्यंग याद आता है, एक बार एक अमीर
आदमी ने गरीब से पूछा कि प्यार मजा है या सजा। गरीब ने सोचते हुए कहा, "हम का जाने साहेब, मजा ही होई
शायद। काहे कि काम होतय तो यहू तुम हमहिं से करवावत।"
ये तो अर्थशास्त्र
के प्रेमशास्त्र में समागम का प्रथम चरण मात्र था। अब बहुत लोग लड़कियों को बेवफा और
न जाने क्या-क्या परिभाषायें गढ़ते है। मगर सही पूछा जाए तो इसके पीछे एक बड़ा व्यावहारिक
तथ्य छिपा है। किसी व्यक्ति ने कहा है कि लड़के प्यार करने के लिए जगह की तलाश करते
है, जबकि लड़कियां वजह की। वास्तविकता में देखा जाए तो अधिकतर लड़कियां वर्तमान की अपेक्षा
भविष्य की सोचती है, इसीलिए उनके लिए प्रेम का अर्थ स्थायित्व, उज्ज्वल भविष्य तथा
योग्य संतति पर ठहरता है, जबकि लड़को को सिर्फ वर्तमान में सब कुछ दिखता है। उनके पास दूरदृष्टि का अभाव होता है।
लड़को के लिए किसी का लड़की होना ही बड़ी बात है और उससे अधिक की न तो उनमें इच्छा होती है और न ही वे उसके लिए
प्रयत्नशील होते है। जबकि लड़कियों के लिये लड़के के चुनाव के अलग-अलग मापदंड होते है।
मसलन शारीरिक सुंदरता या बनावट, आर्थिक स्थिति, पारिवारिक पृष्ठभूमि, औरतो के प्रति
नजरिया, सहयोग, समाज में उसका स्थान,भविष्य के प्रति उसका नजरिया इत्यादि-इत्यादि।
अब ये लड़कियों पर निर्भर करता है कि कौन से मापदंड को वे वरीयता क्रम में किस पायदान
पर रखती है। एक सर्वमान्य तथ्य ये है कि आर्थिक स्थिति एवं सम्बलता यहां बाजी मार ले
जाती है और नतीजन अर्थशास्त्र, प्रेमशास्त्र पर हावी हो जाता है। दूसरी तरफ प्रेमशास्त्र
की विफलता की नींव बचपन में ही रख दी जाती है जहां हर एक लड़की खुद को राजकुमारी सिंड्रेला
मान कर अपने सपनो में ही जीती है। हर लड़की को लगता है कि उसकी जिंदगी में भी एक राजकुमार
आएगा। वास्तविकता से सामना होने पर भरम टूटता है। मगर सपनो के राजकुमार की जो छवि बचपन
से उसके मन में उकेरी गई होती है उसमें राजकुमार एक अमीर आदमी होता है न कि कोई साधारण
मेहनतकश अथवा संघर्षशील व्यक्ति। बचपन में देखे और दिखाए सभी सपने केवल और केवल अर्थशास्त्र
की ही वकालत करते है और इसी कारण प्रेम असफल होता है और अर्थ विजयी।
लेख-देवशील
गौरव
Image courtesy:- Facebook
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