आखिर रिलायंस जिओ ने कैसे पलट कर रख दी टेलीकॉम की दुनिया



CASE -STUDY


एक पुराना व्यंग है कि एक बार सऊदी प्रिंस लंदन के किसी कॉलेज में पढ़ रहे होते है। जाहिर सी बात है उनके आने जाने व रहन सहन के तौर तरीके भी अमीरों वाले होंगे। कॉलेज आने जाने के लिए भी कई लग्जरी गाड़ियां थी। मगर उनके साथ पढ़ने वाले अधिकतर पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसे मेट्रो का उपयोग करते थे।कमोबेश एक बार को सऊदी प्रिंस को यह बात लग गई की मैं तो महंगी महंगी गाड़ियों से आता हूं और बाकी लोग मेट्रो से आते है। तो उन्होंने अपने पिता, सऊदी किंग को मेल लिखा और उसमें अपनी परेशानी, अपनी चिंता का जिक्र किया।उनके पिता यानी कि सऊदी किंग ने बिना देर किए अपने बेटे के मेल का जवाब दिया और लिखा कि बेटे हमें और शर्मिंदा न करो, तुम्हारे अकाउंट में पैसे जमा कर दिए गए गए है और तुम अपने लिए एक मेट्रो खरीद लो। (डोंट एंबैरस अस सन, वी हैव डिपोजिटेड द मनी इन योर अकाउंट, गो एंड बाई ए मेट्रो फॉर यू)।
ठीक इसी तरह हम सभी को लगता है कि अमीरों के पास तो पैसा है, लग्जरी है जो चाहे खरीद सकते है और ये केवल आम आदमी है जिसे सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। तो इसका सीधा सा जवाब ये है मेरे भाई की दुनिया को केवल एक नजरिए से देखना छोड़िए। माना कि अमीरों को कुछ चीजों की सहूलियत रहती है मगर उनकी समस्याएं भी आम लोगो से अलग नहीं होती है। मिसाल के लिए आप कितनी ही महंगी गाड़ी क्यों न ले लो, मगर सड़के तो वहीं रहेगी, ट्रैफिक तो सभी के लिए एक जैसा होगा। और फिर भी अगर आप इस बात से संतुष्ट नहीं हो, और आप को लगता है कि ये सब केवल किताबी बातें है तो आज आपको रिलायंस जिओ के उदाहरण से सीखने की जरूरत है।
तो हुआ यूं कि भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी की बेटी ईशा अंबानी साल 2011 में अमेरिका से छुट्टी मनाने अपने घर इंडिया आयी थी। वह अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही थी और छुट्टियों के दौरान भी उसे कुछ assignment दिए गए थे जो उसे सबमिट करने थे। तो जनाब असाइनमेंट वगैरह तो तैयार हो गया, मगर जब जमा करने कि बारी आई तो इंटरनेट ने धोखा से दिया। अपलोड होने में ही बड़ा टाइम लगने लगा। ईशा ने अपने पिता से कहा, डैड इंटरनेट इन ऑर हाउस सक्स (internet in our house sucks).  और फिर यही वो आइडिया था जिसने न केवल रिलायंस जिओ की नीव रखी बल्कि टेलीकॉम की दुनिया में एक ऐसी जबरदस्त क्रांति ला दी जिसने न केवल पुराने प्रतिद्वंदियों को उखाड़ फेंका बल्कि 4G जैसी टेक्नोलॉजी को आम लोगों तक पहुंचाया।
बात सिर्फ यही तक खत्म नहीं होती, अब मुकेश अंबानी को आइडिया तो जंच गया लेकिन इस काम को अंजाम तक पहुंचाना, असली जामा पहनाना अभी बाकी था। तो न केवल ईशा अंबानी बल्कि उनका जुड़वा भाई आकाश भी इस मुहिम में जुड़ गए। ईशा इस नए वेंचर को एक नए कलेवर के साथ लॉन्च करना चाहती थी, क्योंकि इसके पहले तक रिलायंस के सभी प्रोडक्ट्स और कंपनियों को केवल एक ही ब्रांड के तहत लॉन्च किया जाता रहा था, रिलायंस। और तो और सभी कंपनियों के लोगो (logo) भी एक ही थे। तो कुछ अलग करने कि इच्छा से ईशा ने जर्मन डिजाइनर्स के साथ मिलकर इसका लोगो डिजाइन करने का जिम्मा उठाया। मगर असली समस्या केवल डिजाइनिंग की नहीं थी बल्कि जिस 4G तकनीक को अंबानी लोगो तक पहुंचाना चाहते थे दरअसल उसके लिए इंडियन मार्केट पूरी तरह तैयार ही नहीं थी। सच कहा जाए तो मार्केट में न केवल इसके लिए नई तकनीक की नींव तैयार करनी थी, उस पर भी भारत जैसे देश में ऐसे मोबाइल फोन्स का भी दूर दूर तक पता नहीं था जो यह 4G तकनीक चलाने में सक्षम हो।
अब इसके लिए समय में थोड़ा पीछे जाने की जरूरत है। जून 2010 का समय था जब रिलायंस ने गुजरात की ही एक टेलीकॉम सर्विस प्रोवइडर कंपनी इन्फ्रोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज लिमिटेड जिसे IBSL भी कहा जाता है का अधिग्रहण किया था। यह कंपनी 15 फरवरी 2007 को लॉन्च हुई थी मगर तब तक यह कंपनी स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड नहीं थी। तो जून 2010 में इस कंपनी को रिलायंस ने लगभग 4800 करोड़ में खरीद लिया/ अधिग्रहण कर लिया। उसके बाद बाद ही टेलीकॉम सर्विसेज को और बेहतर बनाने के लिए 4G स्पेक्ट्रम की नीलामी शुरू हुई और IBL ने भारत के सभी 22 सर्कल्स के लिए निर्धारित 4G स्पेक्ट्रम हासिल कर लिए। जनवरी 2013 आते आते IBL का पूरी तरह से रिलायंस में विलय हो गया। अब रिलायंस पूरे भारत में एकमात्र ऐसी कंपनी थी जिसके पास 4G सर्विसेज देने के लिए लाइसेंस था।
वहीं दूसरी तरफ ईशा और आकाश रिलायंस की 2 प्रमुख वार्षिक बैठकों (annual general meeting) में इन्वेस्टर्स और बोर्ड मेंबर्स को इस बात के लिए राजी कर चुके थे कि आने वाला समय न केवल टेलीकॉम क्षेत्र में एक क्रांति लाने वाला है बल्कि कैसे वे इसका पूरा इन्वेस्टमेंट रिटर्न और साथ ही साथ प्रॉफिट के भी हिस्सेदार होने वाले है।
अब जैसा की मैंने पहले ही कहा कि भारत जैसे देश में उस समय तक तो 4G enabled हैंडसेट्स तक अवेलेबल नहीं थे ऐसे में रिलायंस के लिए तो तरफा चुनौती थी। पहली तो यह कि एक तो पूरे देश में 4G enabled सेवाओं का खाका तैयार करना, जिसमें नेटवर्क स्थापित करने के लिए लाइन बिछाने, टॉवर लगाने जैसे काम थे तो दूसरी तरफ एक नई चुनौती ऐसे मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध कराना भी बहुत महतत्वपूर्ण था जिसके जरिए ये सेवाएं लोगो तक पहुंचाई जा सके।
ठीक ऐसी ही कुछ आशंकाए इंडस्ट्री के कई सारे जानकारों ने भी जाहिर की। और तो और IDC Asia PACIFIC के ASSOCIATE DIRECTOR, SHIV PUTCHA ने तो यहां तक कह दिया था कि जब तक रिलायंस जिओ 2G GSM के साथ कोलेबोरेशन नहीं करेगी तब तक ऐसा संभव नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय तक कॉल ड्रॉप की समस्या एक बहुत बड़ी समस्या थी। 
ठीक ऐसी ही कुछ चिंता मुकेश अंबानी को भी सता रही थी कि अधिक से अधिक लोगो को जोड़ने के लिए उन्हें फ्यूचर टेक्नोलॉजी के विकल्प के तौर पर न केवल पूरे देश में ऑप्टिकल फाइबर्स बिछाने पड़ेंगे, जो कि काफी महंगा सौदा होने वाला है, दूसरी तरफ कॉल ड्रॉप जैसी समस्या से निपटने के लिए उनकी तैयारी कैसी होनी चाहिए। ठीक उसी वक्त उनके भाई अनिल अंबानी ने भी उनका साथ देने की घोषणा की और अपने टेलीकॉम नेटवर्क (रिलायंस इंड्ट्रीज) को भी शेयर करने के लिए जिओ के साथ साथ एग्रीमेंट भी किए। रिलायंस जिओ सिर्फ यहीं तक नहीं रुकी बल्कि 4G सर्विस एनेबल्ड टेक्नोलॉजी LTE अर्थात LONG TERM EVOLUTION का लाइसेंस भी रिलायंस जिओ ने 2010 में ही हासिल कर लिया था।
दोस्तो यहां बताना चाहूंगा कि 4G टेक्नोलॉजी के पहले वाले मोबाइल फोन्स केवल 2G व 3G सर्विसेज ही चलाने में सक्षम थे। और सिर्फ 4G नेटवर्क या sim लगाने भर से मोबाइल में 4G नेटवर्क नहीं काम करने लगता था, क्योंकि ऐसे मोबाइल फोन्स 4G sim को सपोर्ट ही नहीं करते थे।
दूसरी तरफ रिलायंस जिओ ने कॉल ड्रॉप की समस्या से निपटने के लिए LTE सर्विसेज स्पेक्ट्रम की अलग अलग सर्कल्स के लिए ब्रांडविथ भी हासिल कर ली थी। जैसे 800MHz, 1800MHz तथा 2300MHz। इसमें 2300MHz का लाइसेंस जिओ को 2010 में मिला। और तो और कॉल ड्रॉप के अलावा डेटा रोमिंग जैसी सुविधाएं प्रोवाइड करने के लिए जिओ ने बाकी अन्य दूरसंचार कंपनियों का दरवाजा भी खटखटाया। खराब इंफ्रास्ट्र्चर और अधिक टैक्स का रोना रोने वाली टेलीकॉम कंपनियों के लिए यह एक अलार्मिंग सिट्यूएशन थी। पहले रिलायंस जिओ जैसी कंपनी को महज एक अदूरदर्शिता व गप्प समझने वाली कंपनियों के दिन अब लद चुके थे। उन्हें लगा कि अब तो जिओ को रोकना मुश्किल हो रहा है नतीजतन कई नेटवर्क प्रोवाइडर्स ने तो जिओ के साथ अपना नेटवर्क शेयर करने से ही मना कर दिया। मगर मुकेश अंबानी भी कहां हार मानने वाले थे, परिणामस्वरूप उन्होंने कोर्ट का रुख किया कि इस तरह आम लोगो तक यह सुविधा पहुंचाने में दिक्कत होगी। और अभी तक जब अन्य कंपनियां जो 2G व 3G सर्विसेज दे रही है वे नेटवर्क शेयर कर रही है और रोमिंग की सुविधा भी से रही है तो ऐसे में उन्हें क्यों रोका जा रहा है। कोर्ट ने इस बात को संज्ञान लेते हुए न केवल टेलीकॉम ऑपरेटरों को फटकार लगाई बल्कि उन्हें अपना नेटवर्क भी जिओ के साथ शेयर करने को कहा।
कोर्ट के इस फैसले से डरे हुए कई ऑपरेटर्स जैसे एयरटेल ने अपनी ब्रांड विथ और कस्टमर् केयर सर्विसेज को सुधारने के लिए न केवल प्रयास शुरू किए बल्कि जोर शोर से कस्टमर्स को यह बताया गया कि हमने इतने टॉवर लगाए है, जहां कनेक्टिविटी इश्यू हो हमें बताए हमारा एक्जीक्यूटिव उसे सही करेगा वगैरह वगैरह। दोस्तो यहां एक बात और साफ करना चाहूंगा कि इंफ्रास्ट्रक्चर का रोना रोने वाली यह कंपनियां असल में पब्लिक को बेवकूफ बनाने का काम कर रही थी। वे जानबूझकर न केवल खराब सर्विसेज दे रही थी, बल्कि अपने एग्जिस्टिंग कस्टमर्स के साथ भी कोऑपरेट नहीं कर रही थी। अनचाहे पैसे काट लेना, खुद ब खुद नई नई सर्विसेज एक्टिवेट कर देना, जिसका भुगतान कस्टमर्स को करना पड़ता था और उसके बाद भी उनकी शिकायत को अनसुना कर देना आदि।
दूसरी ओर अनिल अंबानी की रिलायंस कम्यूनिकेशंस के साथ हुए समझौते से जिओ को केवल 800MHz की ब्रांडविथ कनेक्टिविटी का ही फायदा मिल पाया था, जो कि केवल 7 सर्किल के लिए ही उपयुक्त था। ऐसे में एक तरफ तो जिओ ने  बाकी अन्य क्षेत्रों अर्थात सर्कल्स के लिए खुद ही नेटवर्क केबल्स बिछाने का फैसला किया। यहां एक बात और कहना चाहूंगा दोस्तो कि रिलायंस जियो ने अपने नेटवर्क विस्तार के लिए ऑप्टिकल फाइबर्स का एक बड़ा जाल बिछाया, और ये ऑप्टिकल फाइबर्स बहुत महंगे आते है। इनके इंस्टॉलेशन का खर्चा भी बहुत होता है, मगर यह भी दीगर बात है कि इनके बिना सीमलेस इंटरनेट सर्विसेज प्रोवाइड करना संभव नहीं हो पाता। इन नेटवर्क केबल्स के कारण ही डेटा प्रकाश की गति (स्पीड ऑफ़ लाइट) से चलता है। इतना सब करने के बाद भी रिलायंस जिओ केवल 10 सर्कल्स तक ही ऐसे नेटवर्क केबल्स का जाल बिछाने में सक्षम हो पाई। सितंबर 2016 आते आते जिओ ने अपने नेटवर्क को और अधिक strong करने के लिए, नेशनल रोमिंग के लिए तथा 4G व 2G नेटवर्क शेयर करने के लिए BSNL ( भारत संचार निगम लिमिटेड) से भी अनुबंध किया। वर्ष 2017 के फरवरी माह तक जिओ ने मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग कंपनी सैमसंग के साथ अनुबंध किया जिसमें 4G Pro तथा भविष्य में लॉन्च करने के उद्देश्य से 5G सर्विसेज को ध्यान में रखकर मोबाइल उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा। 
यहां एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगा दोस्तो कि ईशा अंबानी और आकाश अंबानी, जिओ को सिर्फ 4G सर्विस के तौर पर नहीं बल्कि इसे एक अंब्रेला प्रोडक्ट के रूप में लॉन्च करना चाहते थे। इसीलिए जिओ में इंटरटेनमेंट के लिए जिओ मैगज़ीन, जिओ म्यूजिक, पेमेंट बैंक के तौर पर उपयोग के लिए जिओ मनी एवं इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स जैसी सेवाओं के विकल्प को भी जोड़ा गया। अब यहां सबसे बड़ा चैलेंज जिओ के साथ इन सेवाओं की प्राइसिंग का था। 
यदि price ज्यादा रखते है तो शायद कस्टमर न मिले या कम मिले तो ऐसी स्थिति में ROI अर्थात रिटर्न्स ऑन इन्वेस्टमेंट कैसे निकलेगा। दूसरी तरफ अगर टैरिफ कम रखते है तो ज्यादा से ज्यादा कस्टमर्स बनाने पड़ेंगे जिससे न केवल ROI निकल सके बल्कि प्रॉफिट भी कमाया जा सके। तो दोस्तो, यहां भी रिलायंस जिओ के लिए दूसरे विकल्प का चुनाव तो किया गया मगर इसके लिए शुरुआती दौर में कोई भी चार्ज न लेने का निर्णय लिया। मतलब पहले तो कस्टमर्स को इसकी आदत डालो और फिर इससे पैसे कमाओ। पूरी तरह से मार्केटिंग पेनेट्रेशन स्ट्रेटजी, अब इसको दूसरी तरह से समझते है। कंपनी को अपने प्रोडक्ट को मार्केट में लॉन्च करने के लिए पहले पहल उसकी कीमत कम रखनी पड़ती है जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग उस प्रोडक्ट को खरीद सके। मगर यहां तो जिओ ने पूरी कहानी ही उलट दी थी। मतलब प्रोडक्ट तो लॉन्च करेंगे, मगर पैसा नहीं लेंगे? लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ भाई पैसा नहीं लेंगे तो जो इतना खर्चा किया है वो कैसे निकलेगा। कुछ लोग तो इसे कोरी गप्प कहने लगे, मगर रुकिए जनाब मुकेश अंबानी भी कम सयाने नहीं निकले, फ्री तो कहा मगर फ्री था नहीं। मतलब कुल मिलाकर देखा जाय तो जिओ ने अकेले फरवरी महीने में ही पहले 14 सर्किल के लिए 1800 MHz के स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए लगभग 11000 करोड़, 10 सर्कल्स के 800MHz ke स्पेक्ट्रम के लिए 10000 करोड़ और बाकी के 6 सर्कल्स के 1800MHz के लिए 13000 करोड़ का इन्वेस्टमेंट किया। देखा जाए तो कुल 34000 करोड़ रुपए तो केवल स्पेक्ट्रम लेने में ही खर्च हो गए। और ये पैसा भी रिलायंस ने अपनी अन्य कंपनियों जैसे रिलायंस पॉवर तथा ऑयल एंड गैस से लगाया।
वहीं सैमसंग से हुए अनुबंध (Agreement) के तहत मोबाइल फोन की कीमत 1500 रुपए रखी गई, जिसे कस्टमर्स को तीन साल के बाद वापस कर देने को कहा गया। अब इसके गणित को समझने के लिए एक साधारण अनुमान के तहत यूजर्स की संख्या लगभग 500 मिलियन आंकी गई, तो कुल मिलाकर देखा जाए तो लगभग 75000 करोड़ रुपए केवल मोबाइल फोन्स से ही कमाया जा सकता है। दूसरी तरफ अगर sim की बात करे तो लगभग 125 मिलियन सिम बिके और 90 मिलियन एक्टिव यूजर्स तक बने। जहां अन्य ऑपरेटर्स की ज्यादातर कमाई मुख्यत वॉयस कॉल्स के द्वारा होती है वहीं दूसरी तरफ जिओ ने एकदम नई स्ट्रेटजी अपनाई। गौर करने वाली बात ये है कि जिओ के आने के पहले तक केवल 10% घरों में मोबाइल का उपयोग इंटरनेट के लिए और बाकी 90% का उपयोग केवल बात करने के लिए होता था।
तो दोस्तों अगर केवल कॉलिंग के लिए ही अगर मोबाइल का इस्तेमाल किया जाए तो एक नेटवर्क से दूसरे नेटवर्क पर कनेक्ट करने के लिए इंटरकनेक्ट यूसेज चार्ज (interconnect usage charge) जिसे IUC भी कहते है को कॉल करने वाले के नेटवर्क प्रोवाइडर को दूसरे नेटवर्क प्रोवाइडर को देने पड़ते है और यही वह वजह थी जिसके कारण दूसरे ऑपरेटर्स इंटरनेट जैसी सुविधा की जगह कॉलिंग को प्रिफरेंस देते थे और लाभ कमा रहे थे। वर्तमान में यह रेट 6 पैसा प्रति मिनट है। तो शुरू में जैसा कि मुकेश अंबानी ने पहले ही कहा था कि जिओ शुरुआत में free रहेगा, नतीजतन जिओ ने IUC भी पे करने का निर्णय लिया। 
दोस्तो यहां एक बात साफ करना चाहूंगा कि मुकेश अंबानी ने अर्थशास्त्र के सिद्धांत economies of scale का सहारा लिया मतलब एक यूजर से ज्यादा पैसे लेने के बजाय कई यूजर्स से थोड़ा थोड़ा पैसा लिया जाए। ज्यादा से ज्यादा सब्सक्राइबर्स जोड़े जाए। जहां अन्य ऑपरेटर्स केवल तुरंत के फायदे के बारे में सोचते है रिलायंस जियो ने 5 साल बाद मिलने वाले फायदे को टारगेट किया। और फिर आखिरकार 2016 आते आते, 5सितंबर 2016 को रिलायंस जिओ को पब्लिक के लिए लॉन्च किया गया। दिसंबर 2019 तक रिलायंस जिओ भारत का सबसे बड़ा मोबाइल नेटवर्क प्रोवाइडर और लगभग 40.56 करोड़ यूजर्स के साथ विश्व का तीसरा बड़ा नेटवर्क प्रोवाइडर बन गया है।

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