कस्तूरी कुड़ली बसै, मृग ढूंढें जग माहिं ।
मैंने सुना कि एक व्यक्ति ने धर्म-परिवर्तन कर लिया। प्रारंभ में मुझे इसमें कोई विचित्र बात न लगी, अपितु थोड़ी जिज्ञासा अवश्य हुई कि भला धर्म-परिवर्तन से उसे क्या प्राप्त हुआ होगा? फिर मैंने इसे अपनी स्मृति से विस्मृत कर दिया। आखिरकार धर्म का चुनाव व्यक्ति का व्यक्तिगत दृष्टिकोण हो सकता है। कुछ दिनों बाद मुझे ऐसी ही कुछ अन्य घटनाएं संज्ञान में आई। मैंने कौतुहल व जिज्ञासावश इसकी पुष्टि करनी चाही तथा इसके पीछे का कारण जानने का प्रयास किया। मैं उन धर्म-परिवर्तन करने वालो लोगों से मिला। व्यक्तिगतरूप से पूछा जाए तो उनके भीतर मुझे ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया जो उन्हें धर्म-परिवर्तन को विवश कर सकता, परन्तु मनोवैज्ञानिक तौर पर देखा जाए तो उनके भीतर एक कुंठा व विषाद नजर आया। नए धर्म के प्रति उनकी आस्था ठीक वैसी ही थी जैसे किसी नए विद्वान के भीतर अपनी विद्वता का दंभ। वह स्वयं को ज्ञानवान, प्रख्यात पांडित्यपूर्ण तथा दूसरो को निरा मूढ़ समझता है। धर्म-परिवर्तित लोग नए धर्म का बखान कर रहे व पुराने धर्म में दोष निकाल रहे थे। संभवतः ऐसा उनकी अपरिपक्व सोच का ही परिणाम था अन्यथा जिसने धर्म के मर्म को समझ लिया उसके लिए तो सभी धर्म समान है। एक सच्चा धर्मावलम्बी कभी स्वयं के धर्म की प्रशंसा व अन्य धर्मो का उपहास कभी नहीं करता। कुछ दिन व्यतीत होने के बाद धर्म-परिवर्तन करने वाले नए धर्म से भी असंतुष्ट नजर आने लगे। अब चूँकि धर्म-परिवर्तन का निर्णय उनका स्वयं का था इसलिए बेचारे दोष देते भी तो किसे? अलबत्ता दूसरो को दिखाने के लिए ही सही मगर वे अपने नए धर्म का बखान करने से नहीं चूकते। जो सोचकर धर्म-परिवर्तन किया वैसा कुछ वांछित फल तो मिला ही नहीं। नतीजतन कुंठा, असफलता एवं विछोभ ने उनको पुनः आ घेरा। हालाँकि,इसमें नया कुछ भी नहीं है। हमारी मान्यताएं, हमारी आकाँक्षाओं का ही स्वरुप होती है। हम कुछ आकाँक्षाओं को मन में पालते है और उसी की सिद्धि के लिए देवी-देवताओं की उपासना करते है। यदि आकाँक्षाएं पूरी नहीं होती तो दूसरे देवी-देवता की उपासना करने लगते है, और ये क्रम चलता ही रहता है। अपनी आकाँक्षाओं की पूर्ती अथवा सिद्धि के लिए व्यक्ति धर्म व सम्प्रदाय के इतर भी रीति-रिवाज के पालन में लग जाता है। जहाँ पहले-पहल वह अन्य किसी धर्म अथवा उपासना पध्वती के प्रति अविश्वास रखता है,जो बाद में अल्प-विश्वास तथा अभिस्ट सिद्धि न प्राप्त होने की स्थिति में अविश्वास,खेद व कुंठा में बदल जाता है। पूजा-पाठ का स्थान कर्मकांड, जादू-टोना इत्यादि ले लेते है। हमारे लिए हमारी आकाँक्षाएं मुख्य तथा रीति-रिवाज एवं कर्मकांड गौड़ हो जाते है। मंदिरों में चढ़ावा चढाने, दरगाहो पर चादर चढाने से लेकर गिरजाघरो में मोमबत्तियां जलाना इन्ही कर्मकाण्डो का ही तो स्वरुप है। मनुष्य यह भूल जाता है कि यदि ईश्वर ने उसे बनाया है तो वह उसकी समस्याओं से भी भली-भांति अवगत है। वस्तुतः देखा जाए तो इसमें भी संदेह है कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया अथवा मनुष्य ने ईश्वर को? परन्तु यहाँ पर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि इन्ही मनुष्यों में से कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने ईश्वर के स्वरुप की परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया।
प्राचीनकाल में मनुष्य बिजली के चमकने, बादलो के गरजने एवं चाँद-सूरज के निकलने को दैविक चमत्कार मानता था। वह उनसे डरता था और उसके इसी डर ने पूजा-पाठ एवं विभिन्न मान्यताओं को जन्म दिया। मनुष्य एक ऐसी शक्ति में विश्वास रखने लगा जो न केवल उसके दुःख-सुख के लिए जिम्मेदार थी बल्कि समाज में नीतिपरक व्यवस्था बनाये रखने हेतु जिसकी आवश्यकता भी थी। परिणामस्वरूप, एक कपोल-कल्पित शक्ति का सृजन किया गया। कई कहानियां गढ़ी गई और उनके आस्तित्व के प्रति विश्वास को वर्षो तक पोषित भी किया गया। जिसका परिणाम मनुष्य का स्वयं की क्षमताओं एवं योग्यताओं को गौड़ मानकर विभिन्न धर्मो एवं सम्प्रदान के उदय के रूप में परिलक्षित हुआ। कमोबेश, यही अंतर विभिन्न धर्मो में ईश्वर के प्रति व्याप्त विभिन्न मान्यताओ तथा उपासना विधि में स्पस्ट देखा जा सकता है। यहाँ एक यक्ष प्रश्न यह उठता है कि यदि ऐसी कोई शक्ति वास्तव में है भी तो ऐसा कैसे संभव है कि किसी धर्म की उपासना विधि से वह शक्ति प्रसन्न होती है तो अन्य किसी धर्म में उसी उपासना विधि को वर्जित माना गया है अथवा उसके विपरीत उपासना विधि को तर्कसम्मत बताया गया है। संभवतः ऐसी ही मूर्खतापूर्ण सोच ने कर्मकाण्डो को जन्म दिया होगा। वास्तविकता में देखा जाए तो लोगो का धर्म, सम्प्रदाय के विभिन्न उपासना पध्वतियों अथवा कर्मकांडो से कोई सरोकार नहीं है बल्कि उन्हें अपनी आकाँक्षाओं को पूरा होने अथवा सिद्ध होने की चिंता है तथा जिस भी धर्म व संप्रदाय में विश्वास रखने से उनकी आकाँक्षाएं पूरी होती है, वही धर्म-सम्प्रदाय श्रेष्ठ है। आकाँक्षाओं का पूरा या सिद्ध न होना ही मनुष्य को पुराने धर्म का त्याग एवं नए धर्म को स्वीकार करने हेतु एक मरीचिका को जन्म देने का कार्य करता है और मनुष्य स्वयं की योग्यता को दरकिनार कर दूसरो पर विश्वास करने का प्रयास करता है परन्तु शायद ही ऐसा करने से उसे अपनी आकाँक्षाओं की पूर्ती का मार्ग मिला हो कभी।
लेखक:- देवशील गौरव
Picture credit:-npr.org
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