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Showing posts from August, 2018

सवर्णो की वैचारिक विकलांगता

आज के समय में जब हर तरफ पिछड़ी जाति में शामिल होने के लिए सभी जातियों और समुदायों में जंग छिड़ी हुई है तो वही दूसरी तरफ सवर्ण अपनी बेचारगी और पक्षपात का रोना रो रहे है। गौरतलब बात ये है कि अपने प्रति सरकारों द्वारा किये जा रहे सौतेले व्यवहार और उपेक्षा को सहना जहाँ उनके लिए असहाय सा प्रतीत हो रहा है वही दूसरी तरफ शायद कहीं न कहीं उन्हें अपने सवर्ण होने का दुख भी साल रहा है। वर्षो तक अपने को दलितों और पिछड़ों का मसीहा समझने वालों के दिन निसंदेह अब पूरे हो गए है। व्यक्तिगत तौर पर देखा जाए तो किसी जाति अथवा सम्प्रदाय से मेरा कोई विशेष अनुराग नही है, परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि सवर्ण जाति के कुछ न कुछ लोगों को मेरी बात अखरेगी जरूर। अगर इस पूरे प्रकरण का विश्लेषण करें तो कमी कहीं न कहीं सवर्णो में ही नजर आती है। और तो और जिस आरक्षण के वो खुद धुर विरोधी नजर आ रहे है अगर उसे समाप्त भी कर दिया जाए तो भी सवर्णो में ऐसे लोगों और क्षमतावान लोग कम ही मिलेंगे जो अपनी काबिलियत सिद्ध कर सके। गांवों, कस्बो तक सिमट कर रह गयी आरक्षण और अलगाव की भावना का सत्य केवल अवसरों की उपलब्धता तक सीमित रह गया है।

अपने पतन के स्वयं जिम्मेदार कायस्थ

किसी जमाने में अपनी बुद्धि चातुर्य का लोहा पूरे विश्व में मनवाने वाले कायस्थ आज अपनी दुर्गति और उपेक्षा के स्वयं जिम्मेदार है। अन्य जातियों की भांति जहाँ उन्होंने भी अपने मन में ये दम्भ पाल लिया कि बुद्धि, चतुराई और ज्ञान जैसे अर्जित गुण सिर्फ पारिवारिक और कुल विशेष के पैतृक गुणों में तक ही सीमित है वही दूसरी ओर उन्होंने तेजी से आगे बढ़ रहे समाज के नए वर्गों और कार्यो की उपेक्षा करनी शुरू कर दी। ब्राह्मणों और क्षत्रियो के समान उन्हें भी इस बात का गुमान हो गया कि वे केवल समाज को शासित करने के लिए ही उत्पन्न हुए है। अन्तरजातोय विवाह संबंधों और उच्च जातियों के विखंडन से पैदा हुए एक नए सामाजिक परिवेश में वे स्वयं को ढालने में न केवल बुरी तरह असफल हुए बल्कि उन्होंने ज्ञानार्जन और लोक व्यवहार जैसे व्यवहारिक और उपयोगी गुणों से मुंह मोड़ लिया। कुछ एक उदाहरणों जैसे परिहार, चालुक्य, सतवाहन और कुछ अन्य उदाहरणों को अगर छोड़ दिया जाए तो कायस्थ कभी भी लड़ाकू जनजाति नही रही है। संभवतः ये कायस्थों के पतन का सर्वप्रथम कारण था जब उन्होंने सत्तायुक्त होने के स्थान पर केवल राजकाज, प्रशानिक कार्यो और सलाहका

जिंदगी झंड है, फिर भी घमंड है....

जिंदगी झंड है, फिर भी घमंड है... काम कुछ ज्यादा ही अर्जेंट था। हालांकि पूरा करने के लिए समय लगभग ठीक ठाक ही मिल गया था।।मगर कुछ दिन तो यहीं सोच कर मौज मस्ती में काट दिए कि एक दो दिन में ही पूरा निपट जाएगा। और जब डेडलाइन सिर पर आ गयी तो नतीजा देर रात तक जाग कर काम करने की टेंशन सवार हो गयी। दिमाग ने जैसे काम न करने की कसम खा रखी हो और ऐसे बिहेव करने लगा मानो सुबह सुबह किसी बच्चे को नींद से जगा कर जबरन स्कूल भेजा जा रहा हो। दिन भर का थका हारा जब मैं घर पहुंचा तो सिर्फ एक ही टेंशन सवार थी, क्लाइंट इन्तेजार कर रहा होगा और भले ही अगर मैं उसे टाइम पर काम पूरा करके नही दे पाया तो पूरा तो छोड़िए एक आध प्रोजेक्ट का भी जो पैसा मिलना होगा वो भी गया समझो। हालांकि ये भी एक दीगर बात है कि काम तय समयसीमा में पूरा करने के बाद  ही पेमेंट तब ही होगा जब काम अप्रूव होगा उस पर भी एक-एक क्लाइंट के आगे चार-चार पांच-पांच एजेंसीज लाइन लगाए खड़ी रहती हैं और उन एजेंसियों में मेरे जैसे न जाने कितने लोग रात दिन कलम घिसते और राते काली करते नजर आते है। हर कोई इसी उड़ेधबुन में रहता है कि उसका काम सबसे बेहतर हो। द