आखिर गाँधी महान क्यों है?
मित्रो मेरे इस लेख का प्रयोजन कुछ पथ भ्रमित
लोगों, जो गाहे-बगाहे गाँधी जी की प्रासंगिकता और उनके होने या न होने के औचित्य
पर मूर्खतापूर्ण टीका टिपण्णी करने वालो को मेरा प्रत्युत्तर कहा जाये तो कोई
अतिश्योक्ति नहीं होगी। जहाँ एक तरफ भारत की स्वतंत्रता से लेकर औद्योगिक
विकास के क्रम में गाँधी जी की दूरदर्शिता साफ़ परिलक्षित होती है वहीँ दूसरी तरफ
एक महान क्रांतिकारी और देश को दिशा प्रदान करने वाले महापुरुष के चरित्र और
कार्यकलापो पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालो का गर्दभरुदन निसंदेह मेरे समझ से परे है।मेरे इस लेख का उद्देश्य न केवल लोगों को गाँधी
जी के उन कार्य कलापों से अवगत कराना है जिसने उन्हें महान बनाया बल्कि उन्हें उस
परिपेक्ष से भी रूबरू कराना है जिसने गाँधी जी के आन्दोलन को एक दिशा दी।
बात उन दिनों की है जब भारत में अंग्रेजी शासन अपने चरम पर था । भारतीय अग्रेजो द्वारा न केवल प्रताणित किये जा
रहे थे बल्कि अंग्रेजो ने भारतीय उद्योग धंधो को भी बहुत अधिक क्षति पहुंचाई थी । गाँधी जी के स्वतंत्रता के लिए जारी संघर्ष और
उनके सहयोग के लिए कुछ लोग गांधी जी से आकर मिले और उन्हें चंपारण (बिहार) आने का
आग्रह किया । गांधी
जी चंपारण के किसानो और लोगों की समस्या से अनभिज्ञ्य नहीं थे परन्तु वे वहां जाकर
स्वयं इस बात की पुष्टि करना चाहते थे अतः उन्होंने चंपारण जाना स्वीकार किया । चंपारण पहुंचकर गाँधी जी को इतना घोर आश्चर्य और
दुःख हुआ कि उन्होंने स्वयं से पूछा की क्या वास्तव में ये भी उसी भारत के निवासी
है जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता है? गाँधी जी और कस्तूरबा एक ऐसे घर भी गए जहाँ 5
स्त्रियाँ थी मगर केवल एक स्त्री के पहनने के लिए एक मात्र साड़ी थी।
जब भी किसी स्त्री
का कोई रिश्तेदार अथवा सगा-सम्बन्धी आता था तो उस की रिश्तेदार महिला ही उस साडी
को पहन कर उससे मिलने आती थी और रिश्तेदार के जाने के बाद पुनः वह साड़ी उठाकर रख
दी जाती थी । गांधी
जी को जब इस बारें में पता चला तो उन्होंने कस्तूरबा से अपनी साड़ियाँ देने को कहा,
कस्तूरबा के पास उस समय केवल पांच साडीयां ही थी जो उन्होंने उस परिवार को सहर्ष
दे दी। गौर
करने वाली बात ये है कि वहां उस जैसे अन्य कई परिवार भी थे जिनकी कमोबेश यही दशा
थी । अंग्रेजो
ने भारतीय हथकरघा उद्योग को नेस्तनाबूत करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी थी और
तो और अग्रेजो ने सिर्फ उन्हीं कारखानों और उद्योगों को प्रश्रय दिया जिनसे उन्हें
अपने देश में उद्योगों को चलाने के लिए कच्चा माल मिल सके । इस प्रकार देखा जाये तो भारत ब्रिटिश साम्राज्य का
केवल एक उपनिवेश बन कर रह गया । गाँधी जी ने वहां की औरतों को चरखे पर सूत कातते
देख कर पूँछा कि एक दिन में वह कितना सूत कात लेती है । चूंकि उस समय अधिकतर महिलाएं गृहणियां होती थी
और दिन भर में उनके लिए इतना पर्याप्त समय होता था कि वे हफ्ते भर में लगभग पांच
मीटर लम्बी साड़ी के जितना सूत कात सकती थी । यहीं से गाँधी जी ने चरखे के प्रयोग से
स्ववस्त्र निर्माण पर जोर दिया साथ ही स्वयं भी ये संकल्प लिया कि जिस देश के
लोगों के पास पहनने को वस्त्र नहीं है वहां उन्हें भी सम्पूर्ण वस्त्र पहनने का
कोई अधिकार नहीं है । गौरतलब बात ये भी है कि जहाँ गाँधी एक तरफ घरेलू
उद्योग धंधो (हथकरघा और कुटीर उद्योग) के समर्थक थे वही दूसरी तरफ नेहरु
औद्योगीकरण के ।
2 अक्टूबर, 1944 को महात्मा गाँधी के 75 वे जन्मदिन पर ही महान
वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने उनके बारे में कहा था कि “आने वाली नस्ले शायद मुश्किल से
ही इस बात पर यकीन करें कि हांड-मांस से बना कोई ऐसा व्यक्ति धरती पर रहा होगा ।”
वास्तव में देखा जाये तो गाँधी का सम्पूर्ण जीवन ही दार्शनिकता और समाजवाद
का एक जीवंत उदाहरण है । आज के युग में जब हर व्यक्ति धन कमाने, विदेश में
बसने और नाम बनाने को ही सब कुछ मानता है उसे गाँधी से सीख लेनी चाहिए कि किस
प्रकार स्वदेश हित के लिए व्यक्तिगत सुखों का त्याग करना उचित है । गाँधी जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने
बैरिस्टर बनने के बाद जब प्रैक्टिस शुरू की तो एक समय ऐसा भी आया जब उनकी गिनती
सबसे महंगे वकीलों में होने लगी थी, मगर अफ्रीकी लोगों पर अंग्रेजो द्वारा किये जा
रहे अत्याचारों ने उन्हें अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित किया । अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में तो उन्होंने
अपने व्यक्तिगत जीवन की गोपनीय बातें भी दुनिया के सामने खोल कर रख दी ।
वहीँ दूसरी तरफ आजादी के आंदोलनों में गाँधी की भूमिका के बारे में
कहा जाये तो उनसे बड़ा मोटिवेटर शायद ही दूसरा कोई देखने को मिले, जिसके एक इशारे
मात्र से लोग बिना उफ़ तक किये लाठी डंडे खाने और न जाने कितनी विभित्सक यातनाएं
सहने को तैयार हो जाते थे । आज यदि कोई पिता अपने बेटे से कहे कि फलां- फलां
जगह तुम्हें कोई मारेगा और तुम उसको कुछ मत कहना तो सबसे पहला विद्रोह पिता और पुत्र
के बीच ही आरम्भ हो जायेगा । ऐसे में गाँधी जी ने कैसे लोगों को अहिंसा का
पाठ पढाया ये निसंदेह एक शोध का विषय है ।
आज के समय में जब कुछ विकृत मानसिकता के लोग, जिन्हें शायद ही
महापुरषों के बारें में पता हो अथवा जिन्होंने शायद ही कभी अपने इतिहास को जानने
का प्रयत्न किया हो प्रायः मूर्खतावश गाँधी की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह
लगाने लगते है । मेरा
यह लेख ऐसे टटपूंजिए लोगों के लिए एक प्रत्युत्तर समझा जाये जो कहते है कि..
“जाने कितने झूले थे फांसी पर, कितनो ने गोली खायी थी,
क्यूँ झूठ बोलते हो साहब कि चरखे से आजादी आई थी”
आलेख- देवशील गौरव
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