सच और भ्रम
सच क्या है और भ्रम क्या कभी जानने की कोशिश की है आपने? सच और भ्रम में सिर्फ एक बारीक सा फर्क है. आप है ये सच है और आपसे दुनिया है ये भ्रम है. सच ये भी है कि आप सिर्फ अपने आपसे प्यार करते है अपने आप कि चिंता करते है और अपने ही कर्म फल को भोगेंगे, फिर भ्रम ये है कि लोग आपको चाहते आपकी तारीफ करते है और आपको सम्मान देते है. हमारे सामाजिक और पारिवारिक बंधन सिर्फ एक जुड़ाव मात्र है वास्तविकता में ये सिर्फ माया और भ्रम है. जिसे आप दिलोजान से चाहते है उसका असमय चले जाना आपको विचलित तो कर देता है परन्तु क्या वास्तव में आप उसी के साथ अपने जीवन का अंत कर देते है नहीं न. यहाँ सिर्फ अंत रिश्ते या जुड़ाव का होता है न कि आपका. आप सच को आत्मसात कर लेते है और जिंदगी फिर उसी पुराने ढर्रे पर लौट आती है. जुड़ाव सिर्फ छणिक होता है क्योंकि यह सिर्फ एक भ्रम मात्र होता है और जिस तरह ज्ञान का उदय होने पर अज्ञानता मिट जाती है ठीक उसी तरह सच का ज्ञान होने पर अज्ञानता रूपी भ्रम का अंत हो जाता है. जब तक आप दुनियादारी और लोगों के जुड़ाव को वास्तविकता मानते रहेंगे आपका स्वयं से एकाकार नहीं हो पायेगा और जो व्यक्ति स्वयं के आस्तित्व से अनजान है वह भला किसी और का क्या हो सकता है. मान-अपमान, उन्नति-अवनति, दुःख-सुख सभी तो एक जुड़ाव ही है, जिसका कोई मित्र नहीं उसका कोई शत्रु भी नहीं हो सकता. वाल्मीकि, बुद्ध और कालिदास भी तो इसी जुड़ाव का हिस्सा थे लेकिन आत्मज्ञान होने पर सभी ने सच को अंगीकार किया. मेरा सदैव से ये मानना रहा है कि आदमी को कुछ समय स्वयं के लिए देना चाहिए, योग, ध्यान और समाधी इसी सच को जानने के तरीके है. कुछ लोगों का मानना है कि विवाह या समाज इस सच को पाने कि दिशा में सबसे बड़ा अड़ंगा है, लेकिन मेरा मत इसके सर्वथा विपरीत है आप समाज या परिवार का हिस्सा होते हुए भी विरक्त हो सकते हो और विरक्त होते हुए भी भ्रम में जकड़े हो सकते हो. जिम्मेदारियों से भागना आपको कभी सच के करीब नहीं लाएगा और न ही ये उचित है. आप सभी जगह हो सकते है और कहीं भी नहीं. स्वयं से प्रश्न कीजिये क्या आप वास्तव में इतने महत्वपूर्ण है कि दुनिया में या फिर लोगों का काम आपकी अनुपस्थिति में रुक जायेगा? क्या वास्तव में लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में आपके साथ खड़े होंगे? क्या वास्तव में आपके जाने के बाद लोग आपको याद रखेंगे? नहीं न. क्योंकि आपने अभी तक सिर्फ दूसरों का कहा हुआ किया है आप हमेशा दूसरों को खुश रखने का प्रयत्न करते रहे ये जानते हुए कि सब को खुश रख पाना आपका बस में नहीं. न ही लोगों ने कभी इस बात कि परवाह की. आपका जुड़ाव सिर्फ बाहरी है. आप किसी के नहीं है न ही किसी के लिए आपका होना या न होना मायने रखता है, आपके बाद आपके परिवार का ख्याल कौन रखेगा, व्यापार कौन संभालेगा, भविष्य क्या होगा यही चिंताएं आपको जकड़े रखती है जबकि सच ये है सब कुछ नश्वर है सिवाय उस ज्ञान के जो आप दूसरों तक पहुचाते है. एक प्रसिद्द कहावत है खुश रहने के लिए वो करो जो तुम्हें पसंद हो या फिर वो जो तुम कर रहे हो. बात बहुत छोटी सी मगर गूढ़ अर्थ वाली है हम हमेशा वो करते है जो दूसरों को खुश रखे. ज्यादा कमाओ, बड़ा घर, बड़ी गाड़ी, रुतबा सब दूसरों को दिखाने के लिए स्वयं के लिए तो कुछ भी नहीं. और अंत में सोचते है खुद के लिए क्या किया कुछ भी तो नहीं. और जिनके लिए किया क्या वास्तव में वो उसकी परवाह करते है नहीं न? फिर ऐसी उपलब्धि का क्या?
एक बार एक महत्मा का शिष्य भागते हुए उनके पास आया और बोला मैंने आज गंगा के तट पर एक महान सिद्ध पुरुष को देखा दो नदी को चल कर पार कर लेते है. ऐसा दिव्य पुरुष मैंने कभी नहीं देखा और ऐसी उपलब्धि तो निसंदेह तारीफ के काबिल है. महत्मा से उसकी बात शांतिपूर्वक सुनी और मुस्कुराते हुए बोले, उस सिद्धि की कीमत है मात्र तीन रुपए. तीन रुपये देकर वह नदी नाव से पार कर सकते थे. बात बिलकुल साफ़ है आपने सिर्फ दूसरों को दिखाने और अपनी महानता सिद्ध करने के लिए ही ये उपलब्धि कमाई. नट, करतब दिखाने वाले और जादूगर भी आस्चर्यजनक खेल दिखाते है और ऐसे खेल सिर्फ दो वक्त कि रोटी का जुगाड़ करने मात्र तक ही सीमित भी रह जाता है क्या आप इसे उपलब्धि कि संज्ञा देंगे? हमारा आस्तित्व मात्र जीवन जीने तक ही सीमित नहीं है लेकिन शायद हम इस जीवन जीने को ही अपने होने का उद्देश्य समझ रहे है. रामचरित मानस की चौपाई "बड़ भाग मानुस तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रन्थिन गावा" में यही बताने कि कोशिश कि गयी है. अगर मानव होना गर्व की बात नहीं है तो फिर ये देवताओं के लिए भी दुर्लभ क्यों है? और फिर क्यों कोई देव मनुष्य रूप में अवतार लेना चाहेगा? हमने अपने कर्मो द्वारा मनुष्य योनि में जन्म तो ले लिया लेकिन मनुष्यता तो दिखाई ही नहीं. सच को तो तलाशा ही नहीं, अपने आस्तित्व को कभी जाना ही नहीं तो फिर अपने जीवन को चरितार्थ कैसे करेंगे? हम क्या है ये हमे पता ही नहीं है ऊपर से क्यों है ये तो उससे भी जटिल प्रश्न है? स्वयं को समय दे, स्वयं को जाने क्योंकि आत्मज्ञान से बढ़कर कुछ नहीं है. हम हैं तो सब है सब है तो हम नहीं.
सुलेख- देवशील गौरव
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