आह चापलूसी- वाह चापलूसी 

साहब के अचानक आने का समाचार प्राप्त हुआ, सभी मातहत अपने अपने तरीके से साहब को खुश करने के तरीके में जुट गए.
साफ़-सफाई के ख़ास इन्तेजाम किये गए. सफाईवाले से कहकर दो- तीन बार सफाई करवाई, पान की पीक के दाग मिटाने के  लिए रंग रोगन का भी इन्तेजाम किया गया.
नियत समय पर साहब की गाडी आकर रुकी. तीन- चार मातहत फूल- मालाएं लेकर साहब के स्वागत को बढे. बड़ी गर्मजोशी और आत्मीयता से मातहतो ने साहब का स्वागत किया. साहब ने घमंड से चारो ओर एक सरसरी निगाह फेरी और फिर अनमने ढंग से सारे फूल-मालाओं को उतारकर साथ चल रहे मातहत को दे दी.
"आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई साहब" शर्मा जी झूठी आत्मीयता दिखाते हुए बोले. साहब ने कोई जवाब नहीं दिया. साथ से सारे लोग मन ही मन मुस्कुराने लगे, शर्मा जी को बड़ी आत्म-ग्लानी का अनुभव हुआ. मन ही मन उन्होंने साहब को गालिया भी दी. हालांकि भाव- भंगिमा से उन्होंने कुछ जाहिर नहीं होने दिया. साहब ने अपने कमरे में प्रवेश किया उनके पीछे-पीछे मातहतो का एक छोटा सा हुजूम भी उसी कमरे में दाखिल हुआ.ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस कमरे में कोई सैलाब सा आगया हो. मेज पर सफ़ेद ऑर्किड के फूलो से सजा एक छोटा सा गुलदस्ता रखा हुआ था, शायद किसी मातहत को पता चला था की साहब को सफ़ेद आर्चिड बहुत पसंद है.
साहब ने तुरत-फुरत में कुछ एक फाइले मंगाई और दो- चार पन्ने पलटने के बाद दिवेदी जी को फटकारने लगे "इतनी लापरवाही अभी तक ये सारे अकाउंट अपडेट क्यूँ नहीं हुए है?. कोई भी काम आप लोगों से ढंग से नहीं होता उधर देखिये ट्यूब-लाइट के पास कैसे मकड़ी का जाला लगा हुआ है? बगीचे की घास कितनी घटिया तरीके से काटी गयी है. जिम्मेदारी नाम की तो कोई चीज ही नहीं है जैसे. सब मुफ्त की तनख्वाह लेते हो बस."
भाग के शर्मा जी स्वीपर को बुला लाये, माली को भी फटकार पड़ी. उन बेचारों को तो ये समझ में ही नहीं आ रहा था की उनसे क्या खता हो गयी. थोड़ी देर बाद साहब के चाय नाश्ते का इन्तेजाम हुआ. एक प्लेट में भुने हुए काजू रखे हुए थे, दूसरी में नमकीन, तीसरे में पकौड़े, चौथे में मिठाई और न जाने क्या क्या. दिवेदी जी ने धीरे से साहब से पूछा कि साहब लंच में क्या खांयेंगे? लंच में चिकन खायेंगे या मटन? साहब ने धीरे से कहा "वो सब छोड़ो, ये बताओ कि कुछ माल-पानी का जुगाड़ है कि नहीं? ही ही करके दिवेदी जी ने खीस निपोर दी और एक सहमतिपूर्ण संकेत दिया. दिवेदी जी के मन का डर ख़तम हो चुका था. थोड़ी देर में एक पैकेट के साथ दिवेदी जी प्रकट हुए. एक लिफाफा धीरे से साहब की ओर सरका दिया. साहब ने इशारे से पूछा कितना है. दिवेदी जी ने हौले से कहा:-"50 है साहब, अभी तो इतना ही हो सका, दिवाली आने दीजिये कुछ ना कुछ इंतेजाम हो जायेगा, वैसे भी स्टाफ का बोनस भी तब तक आ ही जायेगा". "हुम्मा" साहब ने संतुष्टि प्रकट की और गाड़ी तैयार करने का आदेश दिया. मौका अच्छा देखकर दिवेदी जी ने अपनी दरख़ास साहब के सामने रख ही दी:-"साहब थोड़ा वेतन बढ़ जाता तो बड़ा अच्छा रहता. चार प्राणियों में बड़ी मुश्किल से गुज़ारा हो पता है. उसपर से स्कूल की फीस, और बूढ़े माँ-बाप की दवाई का खर्चा भी है." साहब ने घूर कर दिवेदी जी को देखा और फिर फाइलों में मशगूल हो गए. ऐसा लगा. जैसे उनकी बात सुनी ही नही गयी हो. बेचारे मुँह लटका कर बाहर ही निकले थे कि चपरासी ने आकर गाड़ी तैयार होने की सूचना दी.
"साहब गाड़ी तैयार है". दिवेदी जी ने लपक कर कहा. साहब उठ खड़े हुए और दरवाजे की तरफ़ बद गए. साहब के जाने का समाचार पूरे ऑफिस में फैल चुका था. सभी कर्मचारी अपनी तरफ़ से कुछ ना कुछ भेँट लेकर तैयार खड़े थे. सभी ने अपने-अपने गिफ्ट साहब को भेँट किए. साहब ने धीरे से दिवेदी जी से कहा:- "मैं आपकी बात का ख्याल रखूँगा, आप भाई मेरा ध्यान रखना." "जी-जी साहब, ये भी कोई कहने कि बात है". खीस निपोर कर दिवेदी जी बोले.
साहब की गाड़ी धूल उड़ाती आँखों से ओझल हो गयी. सबने चैन कि साँस ली. दिवेदी जी जहाँ वेतन बढ़ोत्तरी के दीवा स्वप्न में खो गए. वही माली और स्वीपर मन ही मन साहब को गलियाँ दे रहे थे.        

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