बोनस
बोनस
सभी लोग बारी- बारी से अपनी तनख्ववाह के इन्तेजार में मैनेजर से मिल रहे थे. बुधिया को भी इस दिन का महीनो से इन्तेजार था. वैसे तो ले-देकर बड़ी मुश्किल से ही इस बड़े शहर में गुजारा हो पाता था लेकिन अपने बेटे के चेहरे पे ख़ुशी कि वो एक झलक पाने के लिए उसे कितना इन्तेजार करना पड़ा ये शायद ही उसके अलावा कोई और जानता हो.
अपने छोटे से गाँव रामपुर को छोड़कर आये हुए वैसे तो उसे कई साल बीत गए थे और वक़्त बेवकत वो अपने परिवार से मिलने जाता ही रहा है लेकिन इस बार का इन्तेजार कुछ ज्यादा ही लम्बा लग रहा था. दीपावली की छुट्टी का दिन धीरे- धीरे नजदीक आ गया था. पत्नी से बात हुयी तो उसने तो कुछ फरमाइश नहीं की लेकिन बेटे ने अपनी फरमाइशों का अम्बार लगा दिया, आखिर बाल सुलभ मन दूसरे बच्चों को देखकर खुद भी उन्ही के जैसे इच्छाये पालने लगता है बिना अपनी पारिवारिक और आर्थिक परिश्थिति के बारे में विचार करते हुए.
बुधिया को भी अपने बेटे से मिलने की बड़ी तीव्र इच्छा थी लेकिन ये तो बोनस का लालच था जिसने उसे रोक रखा था. सोचा था बोनस के पैसे मिलेंगे तो बच्चे के लिए ठण्ड के कुछ कपडे भी खरीद लेगा, खिलोने और थोड़े बहुत पटाखे भी १००-२०० में आ ही जायेंगे.अभी इसी उधेड़-बुन में खोया था की भुन-भुनाता हुआ रमाशंकर उसके पास से गुजरा. बुधिया की तन्द्रा भंग हुयी सोचा रमाशंकर से बात की जाए. तभी सुपरवाइजर ने बुधिया का नाम पुकारा. मन ही मन अपने इष्टदेव को याद करता हुआ बुधिया मेनेजर के केबिन में घुसा. मेनेजर ने दो-दो बार रुपये गिनते हुए बुधिया के तरफ बाउचर उसके तरफ सरका दिया बुधिया अंगूंठा लगा कर पैसे गिनने लगा. पूरे २००० हज़ार थे . "साहब ये तो केवल दो हज़ार ही है"."हाँ तो क्या सब के हिस्से का पैसा तुम्हें ही दे दे". आँखें तरेरते हुए मेनेजर ने कहा. " लेकिन साहब, दीवाली का बोनस." कहते कहते बुधिया रुक गया. "कैसा बोनस अभी काम मंदा चल रहा है, तहखवाह ही बड़ी मुश्किल से दे रहा हूँ, ऊपर से साहब लोगों को भी खुश करना है." मेनेजर ने बोला.
चुप-चाप बुधिया मुंह लटका कर केबिन से बाहर निकल आया. मन ही मन सोच रहा था की दीवाली इस बार कैसे मनेगी?
सभी लोग बारी- बारी से अपनी तनख्ववाह के इन्तेजार में मैनेजर से मिल रहे थे. बुधिया को भी इस दिन का महीनो से इन्तेजार था. वैसे तो ले-देकर बड़ी मुश्किल से ही इस बड़े शहर में गुजारा हो पाता था लेकिन अपने बेटे के चेहरे पे ख़ुशी कि वो एक झलक पाने के लिए उसे कितना इन्तेजार करना पड़ा ये शायद ही उसके अलावा कोई और जानता हो.
अपने छोटे से गाँव रामपुर को छोड़कर आये हुए वैसे तो उसे कई साल बीत गए थे और वक़्त बेवकत वो अपने परिवार से मिलने जाता ही रहा है लेकिन इस बार का इन्तेजार कुछ ज्यादा ही लम्बा लग रहा था. दीपावली की छुट्टी का दिन धीरे- धीरे नजदीक आ गया था. पत्नी से बात हुयी तो उसने तो कुछ फरमाइश नहीं की लेकिन बेटे ने अपनी फरमाइशों का अम्बार लगा दिया, आखिर बाल सुलभ मन दूसरे बच्चों को देखकर खुद भी उन्ही के जैसे इच्छाये पालने लगता है बिना अपनी पारिवारिक और आर्थिक परिश्थिति के बारे में विचार करते हुए.
बुधिया को भी अपने बेटे से मिलने की बड़ी तीव्र इच्छा थी लेकिन ये तो बोनस का लालच था जिसने उसे रोक रखा था. सोचा था बोनस के पैसे मिलेंगे तो बच्चे के लिए ठण्ड के कुछ कपडे भी खरीद लेगा, खिलोने और थोड़े बहुत पटाखे भी १००-२०० में आ ही जायेंगे.अभी इसी उधेड़-बुन में खोया था की भुन-भुनाता हुआ रमाशंकर उसके पास से गुजरा. बुधिया की तन्द्रा भंग हुयी सोचा रमाशंकर से बात की जाए. तभी सुपरवाइजर ने बुधिया का नाम पुकारा. मन ही मन अपने इष्टदेव को याद करता हुआ बुधिया मेनेजर के केबिन में घुसा. मेनेजर ने दो-दो बार रुपये गिनते हुए बुधिया के तरफ बाउचर उसके तरफ सरका दिया बुधिया अंगूंठा लगा कर पैसे गिनने लगा. पूरे २००० हज़ार थे . "साहब ये तो केवल दो हज़ार ही है"."हाँ तो क्या सब के हिस्से का पैसा तुम्हें ही दे दे". आँखें तरेरते हुए मेनेजर ने कहा. " लेकिन साहब, दीवाली का बोनस." कहते कहते बुधिया रुक गया. "कैसा बोनस अभी काम मंदा चल रहा है, तहखवाह ही बड़ी मुश्किल से दे रहा हूँ, ऊपर से साहब लोगों को भी खुश करना है." मेनेजर ने बोला.
चुप-चाप बुधिया मुंह लटका कर केबिन से बाहर निकल आया. मन ही मन सोच रहा था की दीवाली इस बार कैसे मनेगी?
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