आगंतुक
कमरे में अचानक उसका आगमन मुझे मेरी निजता में दखलंदाजी के माफिक लगा, हालाँकि वह कमरा हम दोनों के लिए पर्याप्त था लेकिन शायद मुझे अपने कमरे में किसी बिन-बुलाये मेहमान का अचानक आ धमकना नागुजार लग रहा था. संभवता वह रोशनदान के रास्ते कमरे में दाखिल हुई थी और थोडा रुकते और चलते उस अनदेखी पगडण्डी के सहारे वह उस प्रकाश- स्रोत टयूब लाइट तक जा पंहुची . जी हाँ ये एक छोटी छिपकली थी, अनायास ही पड़ी मेरी नज़र ने उसे वापस भेजने का निर्णय ले लिया. पहले- पहल हुल्कारने से जब बात नहीं बनी तो डंडे और झाड़ू से डरा- धमका कर भगाने की कोशिश की. लेकिन शायद इस नए मेहमान ने ऐसे स्वागत की आकांशा भी नहीं की होगी. थोडा बहुत प्रारंभिक प्रयास में सफलता मिलती सी लगी जब वह वापस रोशनदान की तरफ बढ़ी, लेकिन अगले ही पल न जाने उसे क्या सूझा की उसने बाहर जाने के बजाय वापस टयूब लाइट की तरफ दौड़ लगा दी और टयूब लाइट की पट्टी के नीचे घुसकर न सिर्फ अपना स्थान सुरक्षित कर लिया बल्कि मानो सीधे लडाई के लिए चुनौती ही दे डाली. उसने कमरा छोड़ने का निर्णय और मैंने उसे भगाने का निर्णय टाल दिया. सच कहा जाए तो मैं उससे हार गया था. अब उस कमरे में वास्तव में दो सदस्य थे. वो दिन तो किसी तरह बीत गया अगले दिन शाम को लौटने पर आगंतुक ने मेरा दिल खोलकर स्वागत किया और न सिर्फ अपने हाव- भाव से बल्कि अपने अंदाज़ से भी कमरे पर अपना मालिकाना हक जाता दिया.
खैर मैंने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया मनो ये स्वीकार कर लिया हो की आप मेरे साथ या यूँ कहूं क्या मैं आप के साथ रह सकता हूँ? इधर मैं अपने खाने की तैयारी में जुट गया उधर मेहमान ने अपना रात्रि भोज प्रारंभ कर दिया. सच पूछा जाए तो उसके इस व्यवहार ने मेरा न केवल मनोरंजन किया बल्कि मेरा उसके प्रति दृष्टिकोण ही बदल दिया. बदले में मेरे आगंतुक ने भी कभी अपनी सीमा रेखा नहीं लांघी और सदैव उस टयूब लाइट की परिधि के आस पास ही रही मानो उसने अपना छेत्र निर्धारित कर रखा हो. घंटो बैठकर उसके क्रिया- कलाप को देखते रहना मानो निरूद्देश जीवन के लक्ष्य निर्धारित करने जैसा था. हम दोनों की दिनचर्या पूर्व निर्धारित और एक दूसरे पर निर्भर रहने की सी हो गयी थी. अब इस आगंतुक का रहना मुझे बिलकुल नहीं अखर रहा था. बल्कि यूँ कहे तो मुझे उसकी आदत सी पड़ गयी थी और उसे हमेशा के लिए रहने देने के ख्याल से भी सहमत था. जीवन एक सुनियोजित कार्यक्रम की भांति चल रहा था, सुबह का हम दोनों का एक साथ चले जाना और शाम को मेरे आने से पहले उसका मेरा घर में इन्तेजार करना. आखिर क्या रिश्ता था मेरा और उसका...............,शायद कुछ रिश्ते समय और देशकाल की परिधि से हमेशा मुक्त होते है. अब मुझे अपने पहले दिन के व्यवहार के लिए आत्म ग्लानि और पछतावा दोनों हो रहा था. लेकिन शायद उस आगंतुक ने कभी भी इस बात का बुरा नहीं माना. समय गुजरता रहा और उसी के साथ हमारा एक दूसरे के प्रति लगाव व सम्मान भी. ऐसा लगता था मानो रोज सुबह हम एक दूसरे से विदा ले रहे हो और शाम को पुनः मिलते अपनी व्यस्त दिनचर्या से कुछ पल निकाल कर एक दुसरे का हाल- चाल पूछने को. यंत्रवत सी दिनचर्या को मानो एक नया आयाम सा मिला. लेकिन शायद इसी का नाम परिवर्तन है.
एक दिन अचानक शाम को लौटने पर कमरे के सन्नाटे ने ये बताने की कोशिश की, कि आगंतुक अभी तक लौटी नहीं है. अब प्रतिच्छा करने कि बारी शायद मेरी थी. मैंने रोशनदान के अलावा टयूब लाइट कि उस पट्टी को भी झकझोर के देखा कि शायद वह अभी भी उसमे हो, बाहर जाकर अपने तथा पडोसी के खिड़की दरवाजे तथा रोशनदान पर नज़र डाली कि शायद वो अभी वही कही हो, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात ; नतीजा सिफर ही रहा . मेरी आगंतुक जा चुकी थी. शायद मैंने और शायद हो सकता है शायद उसने भी ऐसी विदाई की कल्पना भी नहीं की होगी या फिर शायद उसने कहा हो और मैं ही समझ नहीं पाया हूँ. फिर मुझे अपने पहले दिन के बर्ताव का सहसा स्मरण हो आया और लगा शायद उसने भी अपने तरीके से मुझसे बदला लिया है. अब सिर्फ तन्हाई थी, मैं था और एक इन्तेजार उस आगंतुक के लौट आने का.
सर्वाधिकार सुरख्छित:- डी. एस गौरव
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